गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

Mahashivratri some thoughts.

महाशिवरात्रि , भगवन शिव की आराधना, पूजा और सर्पण की महानिशा-- यह वह  अवसर होता है जब भक्तवत्सल भगवान् भोले
भंडारी  मात्र बिल्व पत्र समर्पण से प्रसन्न हो अपने प्रिय भक्त को उसका इष्ट ,काम्य तथा वांछित वर देने को तत्पर रहते हैं.
त्रिदल--तीन पत्तों वाले बिल्व पत्र में ऐसा क्या है कि जिसके समर्पण से प्रभु तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं?
हमारे संत महात्माओं ने,महर्षि मनीषियों ने, दार्शनिकों और विद्वानों ने इस विषय पर न जाने कितना कुछ कहा है- लिखा है. मैं इन में से कोई नहीं हूँ.इसलिए इस विषय पर लिखने का अधिकारी भी नहीं हूँ.
विख्यात व्यंगचित्रकार आर.के.लक्षमण के  कार्टूनों  के एक कोने में खड़े आम आदमी में मैं अपने आप को देखता हूँ . और लगता है कि वह मुझ से कहं रहा है कि बिल्वपत्र के तीन पत्ते प्रतीक हैं अपने अन्दर छुपे तीन दुर्गुणों के ,क्रोध और अहंकार के. इन्ही को अपने अन्दर से निकाल कर प्रभु के चरणों में चढ़ा दे . फिर देख तू कितना हल्का महसूस करेगा . फिर देख  भोलेनाथ  की कृपा तुझ पर कैसी निरंतर बरस रही है.
औरों से आगे निकलने की चूहा दौड़ से बाहर निकल जाएगा तू.मूषक को वाहन बना कर शिव की प्रदक्षिणा कर जिस प्रकार विनायक गणपति बन गए थे वैसे ही तू भी  अपनी मुराद पा जाएगा.
और मेरी मुराद भी क्या है? यही कि "सर्वे भवन्तु सुखिनः , सर्वे सन्तु निरामयः "  बस इतना सा ख्वाब है.
आज इतना ही.

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

itne din na likh paane kaa malaal

पिछले माह की १२ तारीख के बाद आज फरवरी की ८ तारीख को लिखने का प्रयास कर रहा हूँ. कई छोटी मोटी दिक्कतें पेश आ रहीं हैं, फिर भी कोशिश बदस्तूर जारी है. देखना है कि कहाँ तक सफल हो पाता हूँ.
इन दिनों येहाँ का मौसम बड़ा बदला बदला सा लगता है. शाम और रात सर्द होती हैं और दिन गर्म. आम तौर पर मकर संक्रांति के बाद धीरे धीरे ठण्ड कम होने लगती है और फरवरी तक ऋतुराज वसंत दस्तक देने लगता है.शायद इस साल कुछ बदलाव हुआ है.
होली पास है फिर भी होली कि तैयारियों का कोई अतापता नहीं है. गली मोहल्लों में बच्चों कि चहलपहल दिख नहीं रही है. बच्चे वक्त से पहले संजीदा हो गए हैं .जवान होली की धमाचौकड़ी की जगह शहर के माल्स और दुकानों में गिफ्ट्स और कार्ड्स और सुर्ख गुलाबों की खोज में लगे हुए हैं. होली के लिए लकडियाँ जमा करने ,नगाड़े बजाने इत्यादि पुराने जमाने की बातें हो गयी लगती हैं.
वक्त ने किया, क्या हसीं सितम........
यह बदलाव कैसा है? अच्छा या बुरा, पता नहीं.
आज इतना ही.

बुधवार, 13 जनवरी 2010

ghar vaapas aane ke baad

परसों यानी १२ जनवरी को लम्बी यात्रा के बाद रायपुर पहुंचा. घर पहुँच कर , तबीयत हरी हो गयी, थकान काफूर हो गयी.जेट लैग महसूस ही नहीं हुआ . इतने दिनों से घर बंद था. साफ़ सफाई में दो दिन कैसे बीते , पता ही नहीं चला.
आज सामान्य दिनचर्या शुरू हो रही है. नींद अल-सुबह ५ बजे खुल गयी.बिस्तर छोड़ कर उठा. तैयार हो कर प्रातः कालीन भ्रमण पर निकल गया.और १ घंटे बाद लौटा.रास्ते भर लोग बाग़ मिलते रहे. दुआ सलाम होते रहे. शुक्र है अभी मेरा शहर महा नगर नहीं बना . घर आकर पहली फुर्सत में बातें कर रहा हूँ.
ईश्वर बड़ा कृपालु है, ऐसा रह रह कर महसूस होता है. भारतवर्ष पर प्रकृति की कितनी दया है. लगभग ९ महीने चमकदार धूप खिली रहती है. मौसम साल भर अनुकूल रहता है. यह इतनी शिद्दत से शायद इसलिए भी लग रहा है कि पिछले दो महीने देश से बाहर रह आया हूँ.अमेरिका तथा यूरोप की ठण्ड,हिमपात,और बारिश को देख चुका हूँ.भूकंप,चक्रवात,दावानल(जंगल की आग) इत्यादि प्राकृतिक विपदाएं वहां जिस पैमाने पर होती हैं, वैसी भीषण आपदाएं तुलनात्मक रूप से भारत में नहीं होतीं.वहां प्रकृति की प्रतिकूलता के बावजूद , लोगों की कर्मठता ,कर्तव्य निष्ठां श्लाघ्य लगती है.काश! ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के साथ,वैसे समर्पण के साथ, अपने अपने काम में हम लोग भी लगे रहें तो कितना अच्छा हो. देश का कायापलट हो जाय!!
वहां पर अधिकांश देशों में प्रशासनिक व्यवस्थाएं सुचारू रूप से काम करती हैं, बगैर राजनीतिक दबाव के. अपने यहाँ यदि यातायात के उल्लंघन पर यदि पुलिस किसी को पकडती भी है,तो या तो वह रिश्वत दे कर छूट जाता है,या फिर वह अपने किसी मंत्री या नेता से बात कर पुलिस पर दबाव डलवा कर बच जाता है.जो दशा  छोटे मोटे  अपराध की है वही संगीन मामलों की है.
 हमारे यहाँ " लोकतंत्र" है. नियमित अंतराल पर चुनाव भी होते हैं.सरकारें बदलती रहती हैं मगर ज़मीनी हालात वही रहते हैं.
शायद खोट तंत्र में नहीं, लोक में है.ज़रुरत है जन जागरण की और सही कदम उठाने की. यह काम भी शिक्षित वर्ग के द्वारा ही होना है. ज़रा साथ बैठें और सोचें कि क्या जा सकता है..............
आज इतना ही.

शनिवार, 9 जनवरी 2010

आज यहाँ से ब्लॉग लिखना बंद हो रहा है .  कल घर  के लिए वापसी है. कल बोरिया बिस्तर बाँध कर निकलना है. अतः आज लेखन का समापन करना है.
७/१२ ०९ से आज तक कोई २१ ब्लॉग लिखे गए . कुछ को लिखने के बाद अच्छा लगा और कुछ को पढ़ने के बाद कई खामियां नज़र आयीं.
जैसा सोचा था, वैसी सादगी निभ गयी है, अब तक. व्यर्थ के विवादास्पद  विषयों से बचाया है अपने ब्लॉग को. घर बाहर के अलग अलग विषयों पर बातें कीं हैं.
यहाँ पर, जहाँ जहाँ भी घूमे फिरे ,वहां के सचित्र विवरण भी लिखे हैं. भाषा तथा शिल्प की त्रुटियाँ निश्चित रूप से होंगी ही . लिखने का अभ्यास नहीं रहा विगत कई वर्षों से . धीरे धीरे इनमें सुधार होगा ऐसी आशा है. उम्र की ...पचीसी के दशक में खूब पत्र लिखा करता था(हर तरह के लिफाफों में, कभी रंगीन तो, कभी सादे कागज़ पर).उस के बाद कभी कुछ लिखा भी तो उसे सहेजा नहीं.जाने भी दो.
आगे चल कर अन्य कई विषयों की बातें करनी हैं. संस्कृत के कई सुभाषित, हिन्दी,उर्दू,मराठी की कविताओं,उपन्यासों ,कहानियों पर लिखने का मन है .७ से १२ वर्ष के बच्चों के लिएभी  लिखना है.
रायपुर पहुँच कर कुछ शुरू करने से पहले ज़रा सोच विचार करना है. लिखना इस लिए है  कि लिखने में रस मिल रहा है और इसलिए भी कि एक व्यक्ति है जो मेरा हर ब्लॉग पढता है.पढ़कर अपनी राय/प्रशंसा/आलोचना भी देता है. वही एक सुधी पाठक मुझ से आगे भी लिखवाता रहेगा.आज इतना ही.

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

daadee kee yaad

मैं आज बात कर रहा हूँ ,मेरे बचपन के खिड़गाँव के घर की..आज जावेद अख्तर की तरकश की एक ग़ज़ल पढ़ कर घर की याद आ गयी .दर असल बात घर की नहीं , बात है मेरे बचपन की. बचपन के बहाने अपनी दादी की याद को ताज़ा करने की.यही कोई साठसाल पहले की बात है...........
स्कूल में पढ़ने के दिन थे. छुट्टी लगते ही मेरे दादा जी (जिन्हें हम अन्ना कहते थे),खंडवा आ जाते थे और शाम को उनके साथ हम सब बैलगाड़ी में बैठ कर निकल पड़ते थे खिड़गाँव के लिए . तब न तो पक्की सड़क थी और न ही बस चलती थी. लगभग तीन घंटे के सफ़र के बाद हमारी गाड़ी सुक्ता नदी के इस पार पहुँच जाती थी.उस पार हमारा खिड़ गाँव  होता था. गाड़ी नदी  में रोक कर बैलों को पानी  पिला कर गाड़ी आगे बढ़ती. अँधेरे में डूबे गाँव के बूढ़े बरगद के नीचे एक लालटेन  जलती दिखाई देती थी.हम समझ जाते थे कि मेरी दादी हमारी राह देख रही है.नदी पार होते ही हम लोग बैलगाड़ी से कूद कर दौड़ते भागते जा कर उन से चिपट जाते थे.हम सब और हम ही क्या, सारा गाँव , उन्हें "अम्मा" कहता था.
रात को देर से सोने के कारण सुबह भी देर से उठते थे.स्कूल और पढाई के न होने के सुख का अनुभव कितना आनंद दाई होता था. खंडवा ,माँबाप,किताबें अनुशासन सभी से पूरी छुट्टी थी. दादी की चाय भी ख़ास होती थी. पत्ती,दूध शक्कर के अलावा जो इस चाय को ख़ास बनाती थी वह था दादी का प्यार, जो चाय के हर घूँट में मिलता था. चाय के बाद नाश्ते में सत्तू या पोहे या जो कुछ भी होता था एकदम बढ़िया होता था. और रसोई के सामनेवाली खिड़की में बैठ कर नाश्ता करना अविस्मरणीय  अनुभव था . हम सभी इसी फ़िराक में रहते थे सब से अच्छी जगह खिडकीवाली हथियाई जाए . इस के लिए लड़ाई भी होती थी और दादी सब को समझा देती थीं. हमने उसे कभी भी किसी से नाराज़ होते या कि ऊंची आवाज में बोलते नहीं देखा.
नदी में नहाना ,चिलचिलाती धूप में घूमना  और इसी प्रकार की अन्य प्रतिबंधित हरकतों के बाद डांट से बचाने के लिए दादी  हमारी ढाल बन जाती थीं.भगवान् के भोग से पहले ही कई बार हम बच्चों को भोग लगा कर फिर भगवान् का नंबर लगता था.
      रात को एक लाइन से बिस्तर बिछते थे .कहानियां सुनते सुनते कब नींद लगजाती थी , पता ही नहीं चलता था. दादी के भाल का बड़ा सा लाल टीका ,उसकी हंसी अब भी याद आ जाते हैं और जी उदास हो जाता है.
   आज बस इतना ही. उस ग़ज़ल के कुछ शेर भी प्रस्तुत हैं जिन्हें पढ़कर दादी याद आ गयी......:-
      मुझ को यकीं है,सच कहतीं थीं,जो भी दादी कहती थीं,
            जब मेरे बचपन के दिन थे , चाँद में परियां रहती थीं.
     एक ये दिन जब अपनों ने भी हम से नाता तोड़ लिया,
            एक वो दिन जब पेड़ की शाखें बोझ हमारा सहती थीं.
   एक ये दिन जब लाखों गम और काल पड़ा है आंसू का,
            एक वो दिन जब जब एक जरासी बात पे नदियाँ बहती थीं.
   एक ये घर, जिस घर में मेरा, साजोसामाँ रहता है,
            एक वो घर, जिस घर में मेरी बूढ़ी दादी रहती थी.

रविवार, 3 जनवरी 2010

the last film of 2009, that I saw.

३१ दिसंबर की शाम को आईमैक्स थियेटर में जेम्स कैमरून की फिल्म अवतार देखी.यह कई अर्थों में सिर्फ और एक नई फिल्म देखना नहीं . था....यह एक सर्वथा नया अनुभव था.
इस फिल्म को अपने यहाँ भारत में बहुत से लोग देख चुके होंगे. ( मुझे तो अभी अभी पता चला कि हालीवुड की बड़ी फिल्मों की कितनी बड़ी मण्डी है भारत .)
विशाल रजतपट , त्रि-आयामी सजीव प्रोजेक्शन, विशाल सेट्स,  संगणक आधारित चमत्कारी दृश्यावली,  एनिमेशन चरित्रों तथा मानव चरित्रों वाले दृश्यों का संयोजन,  अभिनय, संगीत, संवाद, निर्देशन, सभी कुछ अप्रतिम , किसी एक ही फिल्म में वर्षों बाद ही हो पाता है.अवतार सच में वैसी ही एक फिल्म है.



इन सब के अलावा जिस कारण से मुझे यह फिल्म बहुत ख़ास लगी , वह है इस का कथानक. एक हिसाब से यह साईं फाई यानी साइंस फिक्शन या साइंस फंतासी है. और यह विधा फिल्मों तथा सीरिअल्स में कई बार आ चुकी है. इसलिए यह कोई खासियत नहीं हुई.

जो ख़ास-उल-ख़ास लगा वह है इस कथानक के माध्यम से दिया गया सन्देश.पैन्डोरा हमारी दुनिया के अन्दर/बाहर कहीं भी हो सकता है  और वहां हमारे लिए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण  खनिज संपदा हो सकती है.क्या मात्र इसलिए कि हमें वह संपदा प्राप्त करनी है, हम वहां पहुँच    कर , वहां की सभ्यता पर वहां की निर्दोष आबादी पर , बर्बर हमला कर सकते हैं और उन के प्रतिरोध के स्वाभाविक अधिकार को नकारते हुए उन्हें ही बर्बर तथा हिंसक कह सकते हैं?
प्रजातंत्र का इतना बढ़िया अनुभव, शायद मुझे नहीं होता यदि मैंने यह फिल्म भारत में देखी होती. इतने बड़े पैमाने पर प्रदर्शित इस फिल्म में  दर्शकों की लम्बी लम्बी कतारें , टिकिटों की मारामारी , और फिल्म में सही जगह पर बजती तालियाँ रेखांकित कर रहीं थीं कि यहाँ प्रजातंत्र है.
धन्यवाद कैमरून्स!  धन्यवाद  अमेरिका!!
आज इतना ही 

शनिवार, 2 जनवरी 2010

The last week of stay in USA.



इस बार के सैन होजे प्रवास का अंतिम सप्ताह शुरू हो रहा है कैसा विचित्र मन है मेरा -  घर वापस जाने की खुशी भी है और दूसरी ओर राजू(पुत्र),अनुष्का(पौत्री),और रचना(पुत्र वधू) को छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा है. पता नहीं फिर कब वे भारत आयेंगे या, फिर कब हम ही उनसे मिलने यहाँ  आ पायेंगे .
हाँ, यह संतोष भी हैकि पिछले दो महीने अपने तमाम उतार चढ़ाओं के बावजूद,  मोटे तौर पर सुखद रहे. अपनी व्यावसायिक व्यस्तताओं और गंभीर चिंताओं का जिस तरह  से राजू सामना कर रहा है, वह प्रशंसनीय है. संस्कृत में इस आशय का सुभाषित है कि परदेश में व्यक्ति की शिक्षा या हुनर ही उसकी सच्ची मित्र होते  है -- कितना सटीक और सही है- इस का अनुभव हर दिन हो रहा है.रचना भी जिस लगन और समर्पण अपने घर,rajoo और अनुष्का की देखभाल में व्यस्त है-वह भी श्लाघ्य है.
अनुष्का की चहुंमुखी प्रगति देख कर मैं बहुत खुश हूँ.७ वर्ष की हुई है वह सितम्बर में.दूसरी कक्षा में है. पढाई में अच्छी है. पियानो सीख रही है . भारतीय संगीत सीख रही है खेल कूद ,जिम्नास्टिक्स में भाग लेती है.  अभी स्कूल के शरदावकाश में हिन्दी की वर्णमाला सीख कर , छोटे,छोटे वाक्य  पढ़ना और लिखना सीख कर उसने सब को विस्मित कर डाला .इस एक माह में नई भाषा में इतनी प्रगति मेरी अपेक्षा से कहीं अधिक है.
सचमुच प्रभु की बड़ी कृपा है मुझ पर कि घर से इतनी दूर अपने नए बसेरे में मेरा पुत्र सपरिवार प्रसन्न है तथा अच्छा काम कर रहा है.
आज इतना ही.