मैं आज बात कर रहा हूँ ,मेरे बचपन के खिड़गाँव के घर की..आज जावेद अख्तर की तरकश की एक ग़ज़ल पढ़ कर घर की याद आ गयी .दर असल बात घर की नहीं , बात है मेरे बचपन की. बचपन के बहाने अपनी दादी की याद को ताज़ा करने की.यही कोई साठसाल पहले की बात है...........
स्कूल में पढ़ने के दिन थे. छुट्टी लगते ही मेरे दादा जी (जिन्हें हम अन्ना कहते थे),खंडवा आ जाते थे और शाम को उनके साथ हम सब बैलगाड़ी में बैठ कर निकल पड़ते थे खिड़गाँव के लिए . तब न तो पक्की सड़क थी और न ही बस चलती थी. लगभग तीन घंटे के सफ़र के बाद हमारी गाड़ी सुक्ता नदी के इस पार पहुँच जाती थी.उस पार हमारा खिड़ गाँव होता था. गाड़ी नदी में रोक कर बैलों को पानी पिला कर गाड़ी आगे बढ़ती. अँधेरे में डूबे गाँव के बूढ़े बरगद के नीचे एक लालटेन जलती दिखाई देती थी.हम समझ जाते थे कि मेरी दादी हमारी राह देख रही है.नदी पार होते ही हम लोग बैलगाड़ी से कूद कर दौड़ते भागते जा कर उन से चिपट जाते थे.हम सब और हम ही क्या, सारा गाँव , उन्हें "अम्मा" कहता था.
रात को देर से सोने के कारण सुबह भी देर से उठते थे.स्कूल और पढाई के न होने के सुख का अनुभव कितना आनंद दाई होता था. खंडवा ,माँबाप,किताबें अनुशासन सभी से पूरी छुट्टी थी. दादी की चाय भी ख़ास होती थी. पत्ती,दूध शक्कर के अलावा जो इस चाय को ख़ास बनाती थी वह था दादी का प्यार, जो चाय के हर घूँट में मिलता था. चाय के बाद नाश्ते में सत्तू या पोहे या जो कुछ भी होता था एकदम बढ़िया होता था. और रसोई के सामनेवाली खिड़की में बैठ कर नाश्ता करना अविस्मरणीय अनुभव था . हम सभी इसी फ़िराक में रहते थे सब से अच्छी जगह खिडकीवाली हथियाई जाए . इस के लिए लड़ाई भी होती थी और दादी सब को समझा देती थीं. हमने उसे कभी भी किसी से नाराज़ होते या कि ऊंची आवाज में बोलते नहीं देखा.
नदी में नहाना ,चिलचिलाती धूप में घूमना और इसी प्रकार की अन्य प्रतिबंधित हरकतों के बाद डांट से बचाने के लिए दादी हमारी ढाल बन जाती थीं.भगवान् के भोग से पहले ही कई बार हम बच्चों को भोग लगा कर फिर भगवान् का नंबर लगता था.
रात को एक लाइन से बिस्तर बिछते थे .कहानियां सुनते सुनते कब नींद लगजाती थी , पता ही नहीं चलता था. दादी के भाल का बड़ा सा लाल टीका ,उसकी हंसी अब भी याद आ जाते हैं और जी उदास हो जाता है.
आज बस इतना ही. उस ग़ज़ल के कुछ शेर भी प्रस्तुत हैं जिन्हें पढ़कर दादी याद आ गयी......:-
मुझ को यकीं है,सच कहतीं थीं,जो भी दादी कहती थीं,
जब मेरे बचपन के दिन थे , चाँद में परियां रहती थीं.
एक ये दिन जब अपनों ने भी हम से नाता तोड़ लिया,
एक वो दिन जब पेड़ की शाखें बोझ हमारा सहती थीं.
एक ये दिन जब लाखों गम और काल पड़ा है आंसू का,
एक वो दिन जब जब एक जरासी बात पे नदियाँ बहती थीं.
एक ये घर, जिस घर में मेरा, साजोसामाँ रहता है,
एक वो घर, जिस घर में मेरी बूढ़ी दादी रहती थी.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
दादी की बातें / यादें , मिट्टी की भीनी खुशबू और बौराई हवा के झोंके का अहसास दे गईं । आशा है ऐसी सामग्री और मिलती रहेगी ।
जवाब देंहटाएं