गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

01/01/2010

यहाँ सैन होजे अमेरिका में नया साल १२ घंटों बाद शुरू होगा. भारत में नया साल लगे डेढ़ घंटे बीत गए हैं. जश्न-ए-नव वर्ष कहीं शुरू होने वाले हैं तो कहीं पार्टियां ख़त्म होने को हैं.
कल से लोग नए साल के कैलेंडर, डायरियां खोजने/खरीदने/जुगाड़ने में भिड़ जायेंगे. सब के अपने अपने तरीके हैं. अधिकांश तो अपने परिचित दुकानदारों,जीवन बीमा निगम वालों के चक्कर लगा कर फ़ोकट में जुगाड़ने में पूरी जनवरी लगे रहेंगे. भगवानजी की फोटो वाला मिला तो उसके बदले अमिताभ बच्चन वाला तलाशेंगे. बचों  में से कुछ सीधे सीधे बुक स्टाल से बाबूलाल चतुर्वेदी या कालनिर्णय  खरीद कर ले जायेंगे और पूजा करते समय एकादशी/तीज्त्योहार देख सकें वैसी जगह टांग देंगे. कुछ अन्य इस शोध में रहेंगे कि किस दवा कंपनी या दारू कंपनी ने रंगीन बारह पेजी कैलेण्डर संगीन फोटुओं वाला छापा है और उन्हें कहाँ से और कैसे हथियाया जा सकता है..... कुछ सांस्कृतिक, सामाजिक किस्म के जीव हर अवसर (जैसे होली, दिवाली मिलन) पर कार्यक्रम  बनाते रहते हैं, उसी तर्ज पर नववर्ष मिलन, नववर्ष काव्य संध्या, आदि के लिए चन्दा जमा करने में लग जायेंगे और जनवरी में मोहल्ले/नगर/स्तर का कार्यक्रम करवा कर कृतकृत्य हो जायेंगे.

यहाँ यू.एस. में क्या होता है नहीं पता . बाज़ारों,दुकानों, घरों में तो रंग बिरंगी रोशनियाँ क्रिसमस से ही जगमगा रही हैं. लोग एक दूसरे को उपहार भी खूब दे रहे होते हैं. स्कूल, कॉलेज, दफ्तर वगैरह सभी एक लम्बी छुट्टी के बाद सोमवार से सामान्य रूप से काम करने लगेंगे.
नए साल के लिए कुछ अच्छे संकल्प किये जायेंगे. इन संकल्पों में से अधिकांश पहले ही मास में काल-कवलित हो जायेंगे.  कुछ कि उम्र कुछ दिनों के बजाय कुछ महीनों की भी हो सकती है. इक्का दुक्का ऐसे भी होंगे जो अगले साल का सूरज भी देखेंगे.
मगर मैं कायल हूँ उन लोगों कि दिलेरी का जो नववर्ष के अवसर पर कुछ नया कुछ अच्छा करने का सोचते हैं औ सिर्फ सोचते नहीं करते भी हैं. प्रभु उनके संकल्पों को बल दे, जो हम नहीं कर सके वे करें.
अबसे कुछ दिन, हम जिस किसी से भी मिलेंगे उसे नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं देंगे. जब तक स्टॉक ख़त्म न हो जाय या लोग यह न कहने लगें कि यार परसों ही तुमने अपनी शुभकामनाएं दीं थीं और आज फिर आ गए. चलो एक चाय और पी लो.
बस आज इतना ही.

Is saal ke bache hue din

यह साल  अब सिर्फ  दो दिन का मेहमान है. कल और परसों.फिर आ रहा है नया साल.....इस सदी का दसवां साल.
क्यों न थोड़ी देर ठहर कर देखें कि जो साल लगभग अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर है,वह कैसा रहा?
व्यक्तिगत रूप से देखें तो लगता है कि प्रतिवर्ष के समानइस साल भी कुछ घड़ियाँ परीक्षा की थीं .....तो कुछ पल उपलब्धि के भी थे.राष्ट्र के लिए भी और दुनिया के लिए भी यह कथन लागू होता है.मानव स्वभाव है वह अच्छा अच्छा याद रखता है और बिगड़ी को बिसारता जाता है.यही उचित भी है ताकि वह आगे की सुध ले सके.
ठन्डे दिमाग से सोचें तो लगता है कि ,जो कुछ साल भर में हुआ,वे सब मात्र घटनाएं थीं जो घटित हुईं.न कुछ अच्छा था ....न ही कुछ बुरा था.अच्छी बुरी तो हमारी प्रतिक्रिया थी . मीठा,मीठा गड़ाप गड़ाप , कड़ुआ, कड़ुआ थू थू  है ना बचकानी हरकत .दानिश्ता सोच तो यही होनी चाहिए कि सब कुछ प्रभु का प्रसाद समझ  कर सम भाव से ग्रहण किया जाय.अपने आप को कर्ता/उपभोक्ता न मान कर,जो घट रहा है उसे  साक्षी भाव देखना सीखें.तभी कमलपत्र जैसे जल में रह कर भी अपने आप को सूखा रखा जा सकता है.
सहभागिता सदैव स्वागतेय है.जो कुछ घर बाहर ,आसपास घट रहा है उस में जो कुछ अपेक्षित है वह करना ही है.....पूरे दिल से करना 
है और अपनी पूरी क्षमता से करना है.अपना सहयोग देना है.परन्तु बदले में क्या,कितना और कब मिलना है यह ईश्वर/प्रकृति/ऊपरवाले पर छोड़ देना है.
हमें इस बिदा होते साल के अवसान के दिनों में यही प्रार्थना करनी है प्रभु से कि नव वर्ष में वह हमें एक नई नज़र दे,ताकि हमारे कल  हमारे आज से बेहतर हों.दुनिया नव वर्ष के नए सूरज के नव आलोक में और भी निखर उठे.
आज इतना ही .
 

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

Yosemite National Park- not just a visit,but....


सैन होजे से २०० मील दूर है ईसोमिटी नॅशनल पार्क.२४ दिसंबर को वहां जाने का कार्यक्रम  बना.अन्य दर्शनीय स्थलों के समान नहीं कि सोचा,उठे और निकल पड़े .आना जाना और घूमना फिरना करीब ४५० मील की यात्रा थी. इस में भी २०० मील का सफ़र मैदानी क्षेत्र का था तथा शेष २५० मील पर्वतीय वनप्रदेश की चक्करदार संकरी सडकों पर था जिस में ५० मील अत्यंत दुर्गम हिम बाधित मार्ग था शीत ऋतू के कारण दिन छोटे और रातें लम्बी हैं. शाम भी जंगलों ४:३० पर उतर आती है.
इसलिए सारी सम्भावनाओं से निपटने की पूरी तैयारी के साथ सुबह ८:४० पर घर से निकले.घर के बाहर का तापमान २ डिग्री था तथा जहाँ के लिए निकले थे वहां का -२ डिग्री था. खाद्य सामग्री ,आवश्यक गर्म कपडे सब कुछ साथ लिया था.

 सड़क पर  बर्फ के कारण कार के चक्के फिसलने लगते हैं.इस से बचने के लिए टायर्स पर चढाने की कार चेन खरीदनी थी.एक दो जगह पर पूछा लेकिन नहीं मिली.अंत में तीसरी जगह मिली.उसे भी रखा और ९:३० पर हम चल पड़े गंतव्य की ओर.
पहले के मैदानी भाग के १०० मील पार कर हम एक छोटे गाँव में रुके.कार की टंकी में पूरा पेट्रोल भरवाया और पास की दूकान से वैफल्स लिए और गर्मागर्म चोकोलेट मिल्क पिया.बड़े शहरों के रेस्तरां चेन और भीड़ से बिलकुल अलग अनुभव था.
अब घुमावदार चढ़ाई उतराई वाली यात्रा शुरू हो चुकी थी.वेग कम था.धीरे धीरे बाहर का दृश्य बदलने लगा था.सिर्फ सूचिपर्ण वृक्षों वन दिख रहे थे.अन्य प्रकार के पेड़ विलुप्त हो चुके ठेव.और तभी सामने बहुत दूर बर्फ से ढँकी चोटियाँ दिखने लगीं थीं.हम समुद्र तल से २००० फुट ऊपर आ चुके थे.चढ़ाई जारी थी .क्रमशः 4000और फिर ६०००फुट की ऊंचाइयां पार कर अब एक बार फिर ढलान से नीचे जा रहे थे.कुछ जगहों पर सड़क के किनारे बर्फ पडी दिख जाती थी.किसी किसी पेड़ के पत्तों पर भी बर्फ  दिख रही थी.घाटी का रोमांच शुरू हो गया था. सड़क ३ सुरंगों में से गुजर कर जा रही थी .
एक प्रवेश द्वार पर कार रुक गयी.  प्रवेश शुल्क दिया.ईसोमिटी पार्क आगया था.२५ मील जाना था. एक घंटा लगने वाला था.
सभी दृश्यावली मेरे लिए एकदम नई,मनोरम तथा अद्भुत थी .मैं,जिसने बर्फ सिर्फ रसोई के फ्रिज में आइस ट्रे में जमते देखी थी ,चारों ओर बर्फ के विस्तार को देख कर चकित था.लगभग सभी वृक्ष दो रंगे लग रहे थे.६० से ८० फुट ऊंचे वृक्षों के ऊपरी भाग धूप में चमकदार हरे दिख रहे थे तथा निचले भाग, जहाँ धूप नहीं थी ,धवल श्वेत थे.वे बर्फ से ढंके थे.
मर्सेड नदी इतनी शीत के बावजूद अब भी बह रही थी.उस के स्वच्छ  जल में पास के वृक्षों का प्रतिबिम्ब सुन्दर लग रहा था. अल कप्तान नामक पर्वत श्रृंग,हाफ  डोमनामक एक अन्य पर्वत श्रृंग मुझे शिवलिंग सद्रश्य लगे.जमीन से एकदम लम्बवत सीधे जो वर्षों से ग्लेशियर्स ,जलधाराओं,आंधी तूफ़ान सब को झेलते इन पर्वतों को देख कर मन में सिर्फ श्रद्धा उत्पन्न होती है.शायद यहाँ के लोगों को ये पर्वत गिरजा घर की मीनारों जैसे लगते होंगे .



ईसोमिटी जलप्रपात देखकर मजा आ गया.एक तरफ जल धारा बह रही थी.जल शैलखंडों से टकराता हुआ नीचे गिर रहा था ......और वहीं ज़रा सी दूरी पर जल हिम में बदल कर पत्थर पर स्थिर हो गया था.....बर्फ की लकीर  खिंची दिखती थी.


शाम तेजी से गहराने  लगी थी.धूप का दायरा सिमट रहा था.ठण्ड बढ़ रही थी हवा चुभने लगी थी.सृष्टि के विविध रूप आज पूरे दिन देखे.मन में आया कि सृष्टि तो ब्रह्म का ही रूप है.उस से प्रेम का तात्पर्य ब्रह्म से प्रेम करना है. सृष्टि को जानना भी ब्रह्म को ही जानना है.जिस स्थान को देख कर मन का मल विगलित हो ,मन में पवित्रता आये,सात्विक भाव जागें और सृष्टा का स्मरण हो आये ,वही तो तीर्थ है.
इन्ही विचारों में डूबे हुए शाम ४:३० पर वापसी की शुरुवात की.........और रात साढ़े आठ को घर पहुंचे.

रविवार, 27 दिसंबर 2009

A visit to De la mar beach and mystery spot.



दोपहर के बारह बजे थे.मौसम साफ़ था धूप चमकदार थी.सोचा गया कि क्यों न कहीं आस पास प्रकृति के सान्निध्य में खुले में घूम फिर कर दिन बिताया जाए! अनुष्का(मेरी पौत्री)की शाला में ४ जनवरी तक शरदावकाश है तथा मेजर अनुराग (राजू का ममेरा भाई)आया हुआ था.राजू(पुत्र) के पास समय भी था और उत्साह भी.

सो,चल पड़े घर से.चलते चलते तय हुआ कि हाफ मून बे से लगे हुए अपेक्षाकृत कम लोक प्रिय सागर तट पर चल कर बैठा जाय .कार में फोल्डिंग चेयर्स थीं,बीच ब्लैंकेट था,नाश्ता था पीने का पानी था.....लगभग  पौन घंटे चल कर  गंतव्य पर पहुँच गए.इस समुद्र किनारे को "डी ला मार बीच " कहते हैं.सागर की लहरों ने कार पार्क से जल राशि के बीच की खुली जगह पर साफ़ सुथरी रेत बिछा रखी है.


सी गल,बगुले तथा अन्य जल पक्षी किनारे पर बैठे दिखते हैं. यहाँ एक तरफ की पहाडी पर बस्ती के घर आराम से पसरे हुए हैं.किनारे की खुशनुमा धूप में हम जैसे कुछ अन्य परिवार अपने अपने समूहों में बैठे थे.
हम दोनों फोल्डिंग चेयर्स पर बैठ धूप तापते हुए वातावरण का आनंद ले रहे थे.राजू अपने कैमरे में सारी प्राकृतिक सुषमा समेट रहा था.अनुष्का और अनुराग रेत पर कुलाटियाँ लगा रहे थे,दौड़ रहे थे और लहरों से खेल रहे थे. कुछ देर बाद अनुष्का रेत के घरौंदे  बनाना अनुराग से सीख रही थी.
लगभग दो घंटे वहां बिताने के बाद,सुझाव आया कि पास ही "मिस्ट्री स्पोट" है. शाम होने तक वहां भी जाया जा सकता है.कुछ देर चल कर हम वहां पहुंचे. साढ़े तीन बजे के टिकेट मिले. आधा घंटा था शो शुरू होने में.साथ लाया हुआ भोजन किया और समय पर प्रवेश द्वार पर पहुँच गए.


मिस्ट्री स्पाट ऊंचे ऊंचे हरे भरे सूचिपर्ण वृक्षों के सघन वन के एक हिस्से में है. बीस पचीस लोगों के समूह को एक गाइड अपने साथ ले कर समझाते हुए चलता है.शाम अभी दूर थी. लेकिन सघन  वृक्षों के कारण अन्धेरा समय से पहले उतर रहा था.गाइड ने बताया कि जब यह पूरा वनाच्छादित भाग इस के वर्तमान मालिक ने १०० साल पहले खरीदा ,तो उसे इस जगह को भी खरीदना पड़ा .यह मिस्ट्री स्पाट लोगों में भुतही जगह के रूप में जाना जाता था.फिर नए मालिकों ने इस जगह का वैज्ञानिक सर्वे करवाया.तब यह पता चला कि स्थल विशेष पर प्रकृति ने ही इस अजूबे को बनाया है.
गुत्वाकर्षण के कारण ही हम सीधे खड़े रहते हैं,पेंडुलम दोनों तरफ बराबर दूरी तक दोलन करता है,पानी ऊंची जगह से नीची जगह की ओर बहता है,इत्यादि,इत्यादि.पर इस जहः पर यह सारे नियम गड़बड़ा जाते हैं.हमें यहाँ खड़े होने के लिए १७ डिग्री का कोण बनाते हुए तिरछा खड़ा होना पड़ता है वरना गिर पड़ेंगे.पेंडुलम भी सिर्फ एक ही दिशा में दोलन करता है तथा रुकने पर 17digree के कोण पर ही स्थिर होता है-सीधा नहीं.


दृष्टिभ्रम भी भरपूर होते हैं.तिरछी दिखनेवाली सतह स्पिरिट लेवल से देखने पर समतल निकलती है.परिणामस्वरूप बौना व्यक्ति ऊंचा प्रतीत होता है और ऊंचा बौना लगता है.गेंद चढ़ाई की ओर लुढ़कती है वगैरह.एक निश्चित क्षेत्र में यह होता है उस सीमा के बाहर आते ही सब सामान्य हो जाता है.
बाहर निकलने पर ,जो देखा,जो अनुभव किया वह सच था या सपना या इंद्रजाल यही सोचते सोचते कार में बैठे और वापसी का सफ़र शुरू किया.
आज इतना ही.
.

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

sharat chandra chattopaadhyaay

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय बांगला के, अपने युग के, सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक थे.देवदास उन का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास रहा . है.इस उपन्यास पर अब तक तीन बार फ़िल्में बन चुकी हैंहिन्दी में.अन्य भारतीय भाषाओं को मिला लेँ तो देवदास पर बनी फिल्मों की संख्या दर्जन भर से अधिक है. और हर फिल्म खासी लोकप्रिय रही है.
शायद सब से पहले कलकत्ते के न्यू थिएटर्स ने पी सी बरुआ के निर्देशन में देवदास बनाई.कुंदनलाल सहगल के अभिनय तथा उन की आवाज़ से सजी इस फिल्म ने ४० के दशक के दर्शकों में धूम मचा दी थी.इस फिल्म के कैमरा मैन थे बिमल रॉय .लगभग बीस साल बाद,बिमल रॉय ने अपने बैनर तले,अपने ही निर्देशन में देवदास बनाई.दिलीप कुमार,सुचित्रा सेनऔर वैजयंतीमाला के अभिनय से सजी इस फिल्म ने साठ के दशक के दर्शकों में लोकप्रियता अर्जित की.अभी २००२ में संजय लीला भंसाली ने तीसरी फिल्म देवदास पर बनाई.भव्य सेट्स तथा कर्णमधुर संगीत वाली इस रंगीन फिल्म में शाहरुख खान,ऐश्वर्या राय,माधुरी दीक्षित ने काम किया था.यह भी सफल रही.
अब थोड़ी सी चर्चा देवदास के कथानक से प्रभावित असफल प्रेम का सफल चित्रण करने वाली कुछ अन्य फिल्मों की.गुरुदत्त की प्यासा और उन्ही की कागज़ के फूल .दोनों फ़िल्में त्रिकोणीय प्रेम कथाएँ हैं.दोनों में वहीदा रहमान एवं गुरुदत्त का काम लाजवाब है.एस डी बर्मन  का संगीत एकदम बढ़िया है.राज कपूर,नर्गिस और प्राण की आर के फिल्म्स के बैनर में बनी आह ! भी प्रेम के हारने  की कथा है.फिल्म का बीमार नायक अंत में नायिका  के दरवाजे पर दम तोड़ने की हसरत लिए तांगे में बैठ कर निकलता है.मुकेश तांगेवाले की भूमिका में कक गीत गाता  है छोटी सी ये जिंदगानी रे ......सब देवदास की याद दिलाती है.
इन छः हिन्दी फिल्मों तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी बनी फिल्मों के मूल प्रेरणा स्रोत देवदास के लेखक उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय  को  "असफल प्रेम का सफल चितेरा" आप को कैसा लगा?

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

hindi films and hindi literature

बांग्ला के कई प्रथित यश लेखकों यथा: रवीन्द्रनाथ टैगोर ,बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय,शरतचंद्र चट्टोपाध्याय,बिमलमित्र,आशापूर्णादेवी,समरेश बासु आदि की एक से अधिक कृतियों पर हिन्दी,बांग्ला एवं अन्य भारतीय भाषाओं में कई फ़िल्में बन चुकी हैं.वे फ़िल्में लोकप्रिय भी हुईं.इन लेखकों को बांग्ला साहित्य में तथा अखिल भारतीय स्तरपर भी विभिन्न पुरस्कार मिले हैं.
हिन्दी के प्रचार प्रसार की व्यापकता के हिसाब से साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों की संख्या बहुत कम दिखती है.पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी,मुंशी प्रेमचंद,भगवतीचरण वर्मा, फणीश्वरनाथ "रेणु",कमलेश्वर के अलावा मुझे कोई अन्य नाम नहीं पता जिनके उपन्यास अथवा कहानी पर कोई फिल्म बनी हो. हाँ, गुलशन नंदा के उपन्यास, जिन्हें हिन्दी साहित्य जगत में कोई स्थान नहीं मिला,उन पर एक से अधिक फ़िल्में बनीं भी और वे चलीं भी.
हिन्दी की फिल्मों का प्रदर्शन अखिल भारतीय स्तर पर होता है.महानगरों के मल्टीप्लेक्स के दर्शकों से ले कर छोटे मझोले शहरों कस्बों के दर्शकों तक इनका  एक विशाल दर्शकवर्ग है.टेलीविजन के चैनलों ने इन्हें घर घर में पहुंचा दिया है.अलावा इन के विदेशों में बसे भारतीय दर्शक भी भारी संख्या में हिन्दी फ़िल्में देखते हैं.
इतनी विशाल दर्शक संख्या के बावजूद हिदी निर्माताओं द्वारा अपनी ही भाषा के समृद्ध साहित्य की ऐसी उपेक्षा समझ में नहीं आती.हालीवुड की फिल्मों को तोड़मरोड़ कर पेश किया जा रहा है,दक्षिण भारत की सुपर हिटफिल्मों का रीमेक बन सकता है .परन्तु हिन्दी के लोकप्रिय लेखकों की कृतियों पर कोई फिल्म नहीं बनती.धर्मवीर भारती ,उषा प्रियंवदा,हरिशंकर परसाई,आदि की कई ऐसी रचनाएं हैं जिन पर सफल फ़िल्में बन सकती हैं.
है कोई (माई) हिन्दी का लाल जो बीड़ा उठाये? या इस के लिए भी किसी विदेशी निर्माता को ही आगे आना होगा?
आज इतना ही.

रविवार, 20 दिसंबर 2009

sirf ek kadam.........

पर्दा उठने से पर्दा गिरने के बीच के अंतराल में मंच पर जो घटित होता है -वह सब कुछ किसी के दिग्दर्शन में ,सुलिखित पटकथा,संवादों के अनुसार अभिनय पटु कलाकारों द्वारा सुदीर्घ पूर्वाभ्यास के पश्चात की गयी प्रस्तुति होती है इसी को नाटक कहते हैं इस नाटक का एक सूत्रधार भी होता है.
काश वास्तविक जीवन में भी ऐसा होता !! अगर बनीबनाई पटकथा मिली होती,जानामाना कोई दिग्दर्शक होता,सह्कलाकार ढंग  के होते,यह होता,वह होता,ऐसा होता,वैसा होता तो अधिकांश जीवन सफल होते,दुनिया जन्नत होती.सुखान्त नाटक और हमारा तुम्हारा जीवन एक दूसरे के पर्याय होते.
हम में से अधिकांश का बचपन माँ बाप के दिग्दर्शन में उन्ही की पटकथा के अनुसार चलता है.हम उन्ही की आँखों से देखते हैंदुनिया को ,और समझते भी वही हैं जैसा उन्हों ने समझा होता है दुनिया को .
बचपन कैशोर्य में बदलता है और पटकथा लेखक बदल जाते हैं.हमारे स्कूल ,कॉलेज के अध्यापक,संगी साथी,कमारे कसबे,शहर या महानगर का माहौल पटकथा लिखते हैं और हम नायक/नायिका तथा दिग्दर्शक की भूमिकाएं निभाने की शुरुवात करते हैं.
कल का किशोर क्रमशः युवा ,अधेड़....सारी अवस्थाओं को पार करता हुआ पक कर टपकने को तैयार कुलवृद्ध बन जाता है.तब सोचता है कि कहाँ और क्या गड़बड़ हुई? यवनिकापात संनिद्ध है पर सुखान्त कहाँ है?
शायद यही सच है कि:  सिर्फ एक कदम उठा था गलत,राहे शौक में
                               मंजिल तमाम उम्र हमें ढूंढती रही........
हमारे आसपास ही कुछ सुखान्त नाटक भी मंचित होते दिखाई देते हैं .उनके नायक/अन्य पात्र /दिग्दर्शक इत्यादि और अन्य लोगों में जो सब से बड़ा फर्क दिखाई देता है वह  है जीवन का सही उद्देश्य समझना.और उस उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पण.उन के नाम आप को भी पता हैं,मुझे भी.उन में से प्रत्येक ने अपने आप को दुनिया के तमाम प्रलोभनों से काट कर अपना शत प्रति शत अपने लक्ष्य को दिया है.
आज इतना ही.

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

Gilroy gardens a theme park in california.

लगभग पंद्रह दिन पूर्व की एक खुशनुमा सुबह ,११ बजे ,नाश्ते से निपट कर हम लोग निकल पड़े थे गिलरॉय गार्डन्स के लिए.एक घंटे चल कर इस पिकनिक स्पाट पर पहुंचना था.रास्ता यहाँ की अन्य सड़कों जैसा आने और जाने की ४-४ लेन वाला रास्ता था.औसत रफ़्तार सभी की ५०-६० मील प्रति घंटे रहती है.सभी अनुशासन बद्धढंग से अपनी लेन में चलते हैं .मुझे इतनी तेज़ रफ़्तार कारों का फर्राटेदार यातायात रोमांचक तथा आनंद दायक लगा .जी पी एस  से निर्देश मिल रहे थे. अतः रास्ता भूलने की कोई गुंजाइश नहीं रहती.गार्डन के सामने करीब दो एकड़ का सुदीर्घ पार्किंग एरिया है.

गिलरॉय गार्डन एक निजी स्वामित्व वाला वनस्पति (Horticultural Theme )पार्क  है.,जो पहाड़ के दामन में बना है.यहाँ पेड़ पौधों की विभिन्न प्रजातियाँ सुन्दर ढंग से लगाई  गईं हैं.इन से ज्ञानवर्धन भी होता है और कलात्मकता का आनंद भी प्राप्त होता है.क्विक सिल्वर एक्सप्रेस नाम है पार्क के अन्दर चलने वाली रेल गाडी का.इस रेल में पार्क का चक्कर लगाते हुए पार्क के सारे इलाके को देखा जा सकता है तथा रेल मार्ग में पड़ने वाले पुल,बोगदे,जलप्रपात,आदि का मज़ा उठाया जा सकता है.
गार्डन में हर उम्र के लोगों के लिए झूले (राइड्स) हैं जिन के नाम यहाँ  की थीम के अनुसार स्ट्रा बेरी राइड,गार्लिक ट्विस्टर ,बनाना स्प्लिट वगैरह हैं.खाने, नाश्ते ,आइस्क्रीम,चाय ,अन्य भेंट वस्तुओं की दुकानें सभी अन्दर हैं.

शाम के ५ बजने वाले थे इस का पता तब चला जब गार्डन बंद होने की सूचना ,बार बार उदघोषित की जाने लगी.हम लोग बाहर निकले..देखा कि इतना बड़ा पार्किंग स्थल खचाखच भरा हुआ था.

अपनी कार ढूंढी,बैठे और घर की ओर लौट चले.आज इतना ही.

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

ghar.

आज १४ दिसंबर शाम के ७ बजे जब मैं यह लिख रहा हूं , वहां रायपुर  में पंद्रह तारीख की सुबह के साढ़े आठ बजे होंगे.सन १९८९ को इसी दिन राजीव नगर वाले अपने घर में हम लोगों ने गृह प्रवेश   किया था. उस दिन की यादें आज ताजा हो गयीं हैं. पूरे बीस साल हो गए इस घर में रहते .सुबह के ९ बजे पंडितों के आगमन के साथ पूजा पाठ ,होम हवन,ब्राह्मण भोजन,आमंत्रित अतिथियों की एक के बाद एक पंगतों का सिलसिला शाम तक चला.घर के लोगों ने लगभग रात के ९ बजे भोजन किया.
घर के बुजुर्गों तथा परिचितों व मित्रों में से कुछ बहुत प्यारे लोग आज हमारे बीच से हमेशा के लिए जा चुके हैं.तीनों बच्चों की पढाई लिखाई ,शादियाँ,उन के बालबच्चे सभी हो रहे हैं ,.रायपुर के घर से सब जा चुके हैं . अब उनके अपने घर हैं गृहस्थियां हैं.इस घर में अब सिर्फ हम दोनों ही रह गए हैं
घर की पहली मंजिल का कमरा  और बाथ रूम अब हमेशा बंद रहते हैं.वहाँ का झूला भी खोल कर अन्दर रख दिया है.सिर्फ कपडे धूप में सुखाने या गमलों के पौधों को पानी देने ही कोई ऊपर जाता है.हम दोनों के लिए नीचे के कमरे ही पर्याप्त से अधिक लगते हैं.धीरे धीरे कुछ  सुविधाएँ बढ़ा ली हैं. पूजा के लिए भी अलग स्थान निकल आया है.रसोई में फिल्टर,चिमनी आदि लगा लिए हैं.
मैं ने काम काज से निवृत्ति ले रखी है ,पिछले कुछ सालों से.सुपर्णा शासकीय सेवा से स्वेच्छापूर्वक निवृत्ति लेने के बाद एक निजी कॉलेज में पढ़ा रही है.
मैं क्या कर रहा हूँ? फिलहाल तो आप सब  से बातें कर रहा हूँ.शेष समय में पढ़ता हूँ कम्प्यूटर  पर  ताश खेलता हूँ,मनपसंद संगीत सुनता हूँ...और प्रभु का धन्यवाद करता हूँ.
बच्चे अब बड़े हो गए हैं, बड़े अब बूढ़े हो चले हैं. उन की फिक्र मैं क्या करूंगा? अब शायद वे मेरे लिए फिक्रमंद होंगे....कालाय तस्मै नमः!
आज इतना ही.

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

बातों का यह स्तम्भ आज अपने अस्तित्व का पहला सप्ताह पूरा कर रहा है. इन सात दिनों में इतना तो निश्चित हुआ ही है कि बरसों से जमी काई में हलचल हुई है तथा बातों का अवरुद्ध प्रवाह गतिमान हुआ है.
इस सप्ताह में कुछ उत्साह वर्धन अपनों की टिप्पणियों ने किया है.गोपेन्द्र ने चित्रों की ओर ध्यान दिलाया और रचना ने सिखाया कि चित्र कैसे अपलोड किये जाते हैं.बातों को संपादित कैसे किया जाता है ,यह भी उसी ने सिखाया.परिणामस्वरूप यात्रावर्णन सजीव हो गया लगता है.यह सब एक शुरुवात के हिसाब से ठीक रहा.
अब रोज लिखने पर जोर देने की बजाय बेहतर अभिव्यक्ति का प्रयास करना है.
(जब  कलम में जोर की खुजली उठेगी ) जब सच मुच में कुछ लिखने के लायक लगेगा तब ही लिखा जाए तो परिणाम बेहतर होगा ऐसा सोचता हूँ.कई विचार हैं जिन पर लिखना है. कुछ और प्रवास वर्णनीय हैं. उन पर भी लिखना है.
आज इतना ही.

12/12/2009

दिसंबर की  बारह तारीख है.बारहवें माह की बारह तारीख याने इस साल की अंतिम बारह तारीख इस के बाद की बारह तारिख अगले वर्ष की जनवरी में आयेगी.तब यह साल पिछला साल हो जाएगा.
लगता है कि समय रेत की तरह मुट्ठी से फिसल रहा है. जो फिसल कर गिर गया वह पल, वह दिन,वह माह,वह साल.....कभी लौट कर न आने के लिए चला गया......इतिहास बन गया.जब से पृथ्वी ने लट्टू की तरह अपनी तिरछी धुरी पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा प्रारंभ की तभी से यह चल रहा है.
परन्तु क्या सिर्फ यही हुआ है अब तक? नहीं ऐसा नहीं है.और भी बहुत कुछ हुआ है.विभिन्न प्राणियों की रचना हुई उनका विकास हुआ ,उनमें कई बदलाव हुए तब कहीं जा कर मानव  बना.
और अपने बनने से अब तक मानव ने भी कितनी प्रगति की है हर क्षेत्र में.वैदिक युग से आज तक आध्यात्म ,कला, विज्ञान, कृषि इत्यादि में बड़े बड़े काम हुए हैं और यह सतत प्रक्रिया है.प्रति क्षण नया घटित हो रहा है.
आनेवाला कल आज से बेहतर बनाने में सभी जुटे हैं.चन्द्र यान १ का साल पूरा हो रहा है.अगले साल के लिए क्या सोच रहे हो बंधू?
आज इतना ही.

रविवार, 13 दिसंबर 2009




कैलिफोर्निया में फाल याने पतझड़ जाने को है. सूचिपर्ण वृक्षों को छोड़ अन्य वृक्षों के पत्ते रंग बदल कर लाल या गहरे पीले हो कर झड़ रहे हैं या झड़ चुके हैं. प्रकृति उन्हें आनेवाले जाड़े या हिमपात के लिए तैयार कर रही है
जब भी सप्ताहांत में चटख धूप वाला साफ़ मौसम होता है,यहाँ के नागरिक सपरिवार अपनी कारों में विभिन्न नैसर्गिक दृश्यों का आनंद  लेने निकल पड़ते हैं.
हम लोग भी हर हफ्ते जब जब भी संभव होता है , निकल पड़ते हैं .हम सैन होजे में रहते हैं जो चारों ओर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच की घाटी में बसा हुआ है . पश्चिम की ओर के पहाड़ों के पार प्रशांत महासागर  है.
पिछले सप्ताहांत पर हम लोग  घर से नाश्ता करने के बाद , लगभग १२ बजे दोपहर को, १७ मील के ड्राइव का आनंद लेने पेबल  बीच के लिए चल पड़े.
मौसम साफ़ था . लगभग १०० मील का सफ़र दो घंटों में तय कर के हम पेबल बीच पहुंचे. घुमावदार पर्वतीय मार्ग से गुज़रते हुए निकले.मार्ग के दोनों तरफ स्ट्रा बेरीज तथा विभिन्न सब्जियों के खेत  थे. एक जगह ताजे फलों की दूकान  पर रुक कर संतरे ,सेब और स्ट्रा बेरीज लीं .



बीच यथा नाम छोटे बड़े गोल गोल पत्थरों वाला सागर तट  था. सामने थोड़ी रेत के बाद  क्षितिज तक प्रशांत महासागर का नीला विस्तार था.कार से उतरते ही  तेज ठंडी हवा ने हड्डियों में जलतरंग बजाना शुरू किया . बच्ची के कानों में दर्द होने लगा. तुरंत सब ने स्वेटर पहने ,कनटोप पहने ,कानों में रूई ठूंसी और तब निसर्ग का आनंद लेना संभव हो सका.घर से लाई हुई खाद्यसामग्री  का सेवन  कर हम फिर एक बार निकल पड़े.
यहाँ से १७ मील तक  सड़क की दायीं ओर प्रशांत महासागर  साथ साथ चलता है. समुद्र तल पर तट के समीप बड़ी छोटी चट्टानों के कारण लहरें पछाड़  खा कर सफ़ेद झाग उडाती आती हैं. कुछ चट्टानें सागर के बीच में किनारे से १००-२०० फुट दूरी पर निकली हुई थीं जिन पर विभिन्न जलपक्षी तथा सील मछलियाँ (जिन्हें सी लायन भी कहते हैं ) विश्राम करते हैं.किनारे पर लगी दूरबीनों से पर्यटक उन्हें देखते हैं या उनकी फोटो खींचते हैं.सड़क के बाईं ओर पाइन और साइप्रस के वृक्ष हैं, बस्तियां हैं और गोल्फ के मैदान भी हैं.
एक साइप्रस का पेड़ दायीं तरफ सागर से निकली एक चट्टान पर पिछले २५० वर्षों से ठण्ड, बारिश,तूफ़ान झेलता, अकेला खड़ा है.कार रोक कर उस की फोटो खींची और मन ही मन उस की एकाकी तपस्या को नमन कर हम लोग घर की  ओर लौट पड़े.
अस्ताचलगामी  सूर्यदेव क्षितिज पर सागर में प्रवेश  कर रहे थे. और बायीं ओर बिजली की रोशनी कहीं कहीं शहरों और बस्तियों में झिलमिलाने  लगी थी. शाम गहरा रही थी. कार में  पंडित जसराज का राग दुर्गा बज रहा था .कार वापसी के १०० मील के सफ़र पर चल पडी थी.

आज इतना ही.

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

बातों का मज़ा तभी है जब बात से बात निकलती रहे. बतरस कर्णप्रिय हो और कान से उतर कर कहीं दिल को छू भी जाए.
दिल को वही बात छूती है जिस में कहीं न कहीं "उस" का जिक्र हो. जैसे कि सूफियों का कलाम."वह" जिस किसी भी संत फ़कीर,  सूफी ,सांई, या गुरु की वाणी में हो, सुनने वालों को अपनी ओर आकर्षित करता ही है."वह" किसी को अपने माशूक के रूप में दिखता है,किसी को साहिब के रूप में दिखता है,किसी को माँ के रूप में ,किसी को आदिशक्ति के रूप में तो किसी को राम,कृष्ण,या शिव के रूप में. कोई "उसे" परम पिता मानता है और कोई "उसे" बालकृष्ण मानता है. निर्गुण,निराकार परब्रह्म भी "वही" है.
जब भी, जहाँ भी  कोई रामकथा या भागवत कथा कहता है श्रोता वहीं खिंचे पहुँचते हैं.सुना, पढ़ा तो यह भी है कि जब गोस्वामी तुलसीदास जी चित्रकूट के घाट पर रामकथा सुनाया करते थे तो स्वयं पवनपुत्र हनुमानजी श्रोताओं में बैठकर रामकथामृत का पान किया करते थे .
तब से लेकर अब तक श्रोता हर उस माध्यम की ओर आकर्षित होते हैं जिस में "उस" की बात हो.
दूरदर्शन पर जब सुबह रामायण धारावाहिक प्रसारित होता था रविवार की सुबह तो हर शहर में सड़कें ,बाजार सब सूने हो जाते थे और जिसे जहाँ जगह मिलती थी,अपने घर,पड़ोसी के घर,या दूकान में बुद्धू बक्से के सामने जम जाता था .उस दिन काम काज ९ कि बजाय ११ बजे शुरू होते थे.ऐसी और इतनी लोकप्रियता किसी अन्य कार्यक्रम  को मिली है?आज भी सभी चैनल किसी न किसी रूप में "उस" की बात वाले कार्यक्रम दिखाते रहते हैं.
"उस ही की जय हो!!"
आज इतना ही.

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

baaten.

मराठी में कहते हैं : इजा बीजा तीजा. यह शायद  एक दो तीन का पर्याय है. मतलब यह कि अगर आप संकट के लगातार तीन हमले सफलतापूर्वक झेल गए तो समझो संकट टल गया.(या समझो आप की पीठ  इतनी मज़बूत हो गयी है कि संकट बेअसर होगा.)
आज बातों की तीसरी किश्त है.मैं लिख रहा हूँ और कुछ लोग पढ़ भी रहे हैं तीसरी बार. क्या यह संकेत है कि बातें जारी रहेंगी?
पहली प्रतिक्रया भी मिली . उन्हें बातें पसंद आईं.लेकिन प्रत्यक्ष भेंट में मेरा मौन भी मुखर लगा.क्या समझूं मैं? मैं आभारी हूँ उन का. उनकी प्रतिक्रया ने मुझे आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया है.
यह तो चलता रहेगा. अब वह किया जाए जिस के लिए येहाँ बैठा हूँ याने  बातें की जाएँ.
             लाई हयात आये, क़ज़ा ले चली चले,
              अपनी खुशी न आये , न अपनी खुशी चले.
यह सब तो सही है. आना जाना  अपने हाथ की बात नहीं है.लेकिन यहाँ आने और यहाँ से जाने के बीच के समय (यानी जिन्दगी) में आपने और मैंने किया क्या? मंदिर बनाए? मस्जिदें तोड़ी? लोगों को जोड़ा या तोड़ा? कितनी दोस्तियाँ कीं? कितने रिश्ते निभाये? कहीं अपनों को ठेस तो नहीं पहुंचाई?
जीवन के जिस मोड़ पर हूँ वहां से पीछे मुड़ कर देखता हूँ  तो काफी लम्बी यात्रा पूरी हुई लगती है. सामने देखता हूँ तो लगता है कि यात्रा अपने पड़ाव के करीब है.
इसलिए, बंधू, जो करना है उसमें ढिलाई नहीं चलेगी. गति बढानी है बहुत काम बाकी हैं. उन्हें निपटाना है .जाते समय यह संतोष रहना चाहिए कि आस पास के लोग खुश हैं. मैं स्वयं खुश हूँ. परम प्रिय से भेंट के उत्सव के लिए मेरी तैयारी पूरी है.
आज इतना ही. जय हो!!

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

नई सुबह थी आज की . मेरे लिए तो एक से अधिक अर्थों में नई . पहली बात यह है कि आज लगातार दूसरा दिन है  जब मैं अपने नियम पर चल पड़ा हूँ- लिख रहा हूँ. न लिखने का कोई बहाना नहीं तराशा.
दूसरी बात यह कि सुबह खिड़की से बाहर झांका तो समझ में नहीं आया कि बाहर की घास,झुरमुट की झाड़ियाँ,पेड़ों की डालियाँ  सभी का रंग  हरे से  कैसा अजीब सफ़ेद सा हो गया है.बाहर खड़ी अपनी तथा अन्य पड़ोसियों की कारें भी गीली गीली सफेदी में लिपटी सी खड़ी हैं. दूर बिजली के तार पर आँगन में फुदकने वाली चिड़ियाँ एक कतार में दुबकी हुई बैठी थीं.
सड़क पर रोज की तरह फर्राटे भरती कारें नहीं थीं.
धूप का कोई अता पता नहीं था .फिर मालूम हुआ की बाहर का तापमान -१/२ डिग्री था.इसलिए ओस की सारी नमी घनीभूत हो कर बर्फ बन गयी है इसे स्लीट कहते हैं . सड़क का सन्नाटा धीरे धीरे रेंग कर सब तरफ फैलता जा रहा था. मैं यह सोच कर डर रहा था कि कहीं सब कुछ जम न जाए.
गनीमत है कि करीब ९ बजते बजते धूप निकल आयी .और सूरज का जादू चल पड़ा . सफेदी पिघल कर बहने लगी और देखते ही देखते लान की घास,पेड़ों के पत्ते सब हरे हो गए . मैं ने मन ही मन तालियाँ बजाईं.
तुम मुस्कुरा रहे हो.सच तो यह है कि प्रकाश और ऊष्मा से ही धरा पर जीवन है. वह सूरज से मिलती है धरा को.मुझे मिलती है तुम्हारी मुस्कान से.
सविता याने सूरज, भास्कर, आदित्य को समर्पित है गायत्री मंत्र. जय हो! आज इतना ही.

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

बातें
कल रात की बात है.रोज की तरह टेबल लेम्प बुझा कर लिहाफ में दुबक कर नींद लगने का रास्ता देख रहा था.आँखे बंद कर ली थीं .
मगर नींद आने कि जगह,बंद आँखों के दृष्टि पटल पर चहरे उभरने लगे.तुम्हारा चेहरा,उस-का,और मेरा भी.....फिर चल पड़ा बातों का सिलसिला.
बात निकली तो गयी भी बहुत दूर तलक.तुम्हारी बात,उसकी बात,मेरी बात दुनिया जहान के सुख दुःख की बातें.काम की बातें   बेकाम  की बातें, मुस्कुराने की बातें, लतीफे,ठहाके,सभी कुछ.
पता नहीं कितनी देर तक चलता रहा यह सब.पता नहीं कब बातों का सिल्सिला रुका और कब नींद आ गयी.
सुबह उठा तो कागज कलम का इंतज़ाम कर लिखना शुरू किया है.तय हुआ था कल रात की हर सुबह रात की बातों को कागज पर उतारा जाए.
हफ्ते भर बाद जो लिखा उसे पढ़ा जाए और अगर इस सब का कुछ बनाता है,तो सिलसिला जारी रहे वरना रात गयी बात गयी.
ठीक है न.कभी तुम्हारी बात होगी और सब सुनेंगे.कभी उसकी बात होगी और हम सुनेंगे .कभी दुनिया बोलेगी और हम सुनेंगे. हाँ कभी मैं बात बरूंगा और सिर्फ तुम समझोगी.
बस आज इतना ही.