रविवार, 27 दिसंबर 2009

A visit to De la mar beach and mystery spot.



दोपहर के बारह बजे थे.मौसम साफ़ था धूप चमकदार थी.सोचा गया कि क्यों न कहीं आस पास प्रकृति के सान्निध्य में खुले में घूम फिर कर दिन बिताया जाए! अनुष्का(मेरी पौत्री)की शाला में ४ जनवरी तक शरदावकाश है तथा मेजर अनुराग (राजू का ममेरा भाई)आया हुआ था.राजू(पुत्र) के पास समय भी था और उत्साह भी.

सो,चल पड़े घर से.चलते चलते तय हुआ कि हाफ मून बे से लगे हुए अपेक्षाकृत कम लोक प्रिय सागर तट पर चल कर बैठा जाय .कार में फोल्डिंग चेयर्स थीं,बीच ब्लैंकेट था,नाश्ता था पीने का पानी था.....लगभग  पौन घंटे चल कर  गंतव्य पर पहुँच गए.इस समुद्र किनारे को "डी ला मार बीच " कहते हैं.सागर की लहरों ने कार पार्क से जल राशि के बीच की खुली जगह पर साफ़ सुथरी रेत बिछा रखी है.


सी गल,बगुले तथा अन्य जल पक्षी किनारे पर बैठे दिखते हैं. यहाँ एक तरफ की पहाडी पर बस्ती के घर आराम से पसरे हुए हैं.किनारे की खुशनुमा धूप में हम जैसे कुछ अन्य परिवार अपने अपने समूहों में बैठे थे.
हम दोनों फोल्डिंग चेयर्स पर बैठ धूप तापते हुए वातावरण का आनंद ले रहे थे.राजू अपने कैमरे में सारी प्राकृतिक सुषमा समेट रहा था.अनुष्का और अनुराग रेत पर कुलाटियाँ लगा रहे थे,दौड़ रहे थे और लहरों से खेल रहे थे. कुछ देर बाद अनुष्का रेत के घरौंदे  बनाना अनुराग से सीख रही थी.
लगभग दो घंटे वहां बिताने के बाद,सुझाव आया कि पास ही "मिस्ट्री स्पोट" है. शाम होने तक वहां भी जाया जा सकता है.कुछ देर चल कर हम वहां पहुंचे. साढ़े तीन बजे के टिकेट मिले. आधा घंटा था शो शुरू होने में.साथ लाया हुआ भोजन किया और समय पर प्रवेश द्वार पर पहुँच गए.


मिस्ट्री स्पाट ऊंचे ऊंचे हरे भरे सूचिपर्ण वृक्षों के सघन वन के एक हिस्से में है. बीस पचीस लोगों के समूह को एक गाइड अपने साथ ले कर समझाते हुए चलता है.शाम अभी दूर थी. लेकिन सघन  वृक्षों के कारण अन्धेरा समय से पहले उतर रहा था.गाइड ने बताया कि जब यह पूरा वनाच्छादित भाग इस के वर्तमान मालिक ने १०० साल पहले खरीदा ,तो उसे इस जगह को भी खरीदना पड़ा .यह मिस्ट्री स्पाट लोगों में भुतही जगह के रूप में जाना जाता था.फिर नए मालिकों ने इस जगह का वैज्ञानिक सर्वे करवाया.तब यह पता चला कि स्थल विशेष पर प्रकृति ने ही इस अजूबे को बनाया है.
गुत्वाकर्षण के कारण ही हम सीधे खड़े रहते हैं,पेंडुलम दोनों तरफ बराबर दूरी तक दोलन करता है,पानी ऊंची जगह से नीची जगह की ओर बहता है,इत्यादि,इत्यादि.पर इस जहः पर यह सारे नियम गड़बड़ा जाते हैं.हमें यहाँ खड़े होने के लिए १७ डिग्री का कोण बनाते हुए तिरछा खड़ा होना पड़ता है वरना गिर पड़ेंगे.पेंडुलम भी सिर्फ एक ही दिशा में दोलन करता है तथा रुकने पर 17digree के कोण पर ही स्थिर होता है-सीधा नहीं.


दृष्टिभ्रम भी भरपूर होते हैं.तिरछी दिखनेवाली सतह स्पिरिट लेवल से देखने पर समतल निकलती है.परिणामस्वरूप बौना व्यक्ति ऊंचा प्रतीत होता है और ऊंचा बौना लगता है.गेंद चढ़ाई की ओर लुढ़कती है वगैरह.एक निश्चित क्षेत्र में यह होता है उस सीमा के बाहर आते ही सब सामान्य हो जाता है.
बाहर निकलने पर ,जो देखा,जो अनुभव किया वह सच था या सपना या इंद्रजाल यही सोचते सोचते कार में बैठे और वापसी का सफ़र शुरू किया.
आज इतना ही.
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