पर्दा उठने से पर्दा गिरने के बीच के अंतराल में मंच पर जो घटित होता है -वह सब कुछ किसी के दिग्दर्शन में ,सुलिखित पटकथा,संवादों के अनुसार अभिनय पटु कलाकारों द्वारा सुदीर्घ पूर्वाभ्यास के पश्चात की गयी प्रस्तुति होती है इसी को नाटक कहते हैं इस नाटक का एक सूत्रधार भी होता है.
काश वास्तविक जीवन में भी ऐसा होता !! अगर बनीबनाई पटकथा मिली होती,जानामाना कोई दिग्दर्शक होता,सह्कलाकार ढंग के होते,यह होता,वह होता,ऐसा होता,वैसा होता तो अधिकांश जीवन सफल होते,दुनिया जन्नत होती.सुखान्त नाटक और हमारा तुम्हारा जीवन एक दूसरे के पर्याय होते.
हम में से अधिकांश का बचपन माँ बाप के दिग्दर्शन में उन्ही की पटकथा के अनुसार चलता है.हम उन्ही की आँखों से देखते हैंदुनिया को ,और समझते भी वही हैं जैसा उन्हों ने समझा होता है दुनिया को .
बचपन कैशोर्य में बदलता है और पटकथा लेखक बदल जाते हैं.हमारे स्कूल ,कॉलेज के अध्यापक,संगी साथी,कमारे कसबे,शहर या महानगर का माहौल पटकथा लिखते हैं और हम नायक/नायिका तथा दिग्दर्शक की भूमिकाएं निभाने की शुरुवात करते हैं.
कल का किशोर क्रमशः युवा ,अधेड़....सारी अवस्थाओं को पार करता हुआ पक कर टपकने को तैयार कुलवृद्ध बन जाता है.तब सोचता है कि कहाँ और क्या गड़बड़ हुई? यवनिकापात संनिद्ध है पर सुखान्त कहाँ है?
शायद यही सच है कि: सिर्फ एक कदम उठा था गलत,राहे शौक में
मंजिल तमाम उम्र हमें ढूंढती रही........
हमारे आसपास ही कुछ सुखान्त नाटक भी मंचित होते दिखाई देते हैं .उनके नायक/अन्य पात्र /दिग्दर्शक इत्यादि और अन्य लोगों में जो सब से बड़ा फर्क दिखाई देता है वह है जीवन का सही उद्देश्य समझना.और उस उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पण.उन के नाम आप को भी पता हैं,मुझे भी.उन में से प्रत्येक ने अपने आप को दुनिया के तमाम प्रलोभनों से काट कर अपना शत प्रति शत अपने लक्ष्य को दिया है.
आज इतना ही.
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